Tuesday 7 January 2014

                                                          परम्परायें और समय 







मैं चीखता रहा,
देखकर डूबता सूरज
और सबने घरों में
बल्ब जला लिए,
मै देखता रहा
"अन्धकार"!

मै देखता रहा
बूढ़े होते
रथ के घोड़ो को
और सबने अपने बाल
रंग लिए.

मै देखता रहा
मरते, एक एक करके
सभी सार्थियों को, और
धीमे होते
गति रथ कि
"रथ सनातन धर्म" का

मै देखता रहा
घावों को जो
बढ़ रहे थे, और
आक्षेपो को जो
काला कर रहे थे
कुप्रथाओं को
जो डुबो रहे थे
सूरज को
चौतरफा प्रहार से
जो हो रहा था
सभी दिशाओं से
स्वयं कि किरणो के
सहयोग से.

मैं देखता रहा
टूटते प्राण दाई तार्रों को
जो टूट रहे थे
एक एक करके
आधुनिक समाज के
सर्वनाशी हथियारों से.
"प्राणघातक"

मई देखता रहा
झुकाव किरणो का
मुद्रफिसदी कि दरों में
और गिरता रहा
सामाजिक सद्भाव ,
चेतना और विश्वास।

मै सोचने लगा
काट इन सभी
रोगों का,
और बैठ गया
माथे को गाड़े
घुटनो के बीच
क्यूँ कि मै
खड़ा था तेज दौड़ते
विश्वबाजार में
जो खोलेगा
मंगल पे अपनी प्रयोगशाला।

क्यूंकि,
नहीं खीचना है
नए भुद्धिजीवों को
पुराना रथ, "सूरज का"
नहीं बनना है 'सारथि'
पुराने धर्म रथ का.

मैं 'समय'
खुद के चक्रों में
उलझा, बंधा
असहाय हूँ
और प्रतीक्षा कर
रहा हूँ
उस दृश्य का
जब धीरे-धीरे
सारे दिशाहीन और
भ्रमित घोड़े
निसप्राण हो जायेंगे
और एक आखिरी पीड़ा
जो होगी सिर्फ मुझे
उस आखिरी विनासकारी
दृश्य पे.
और
नव सृजन का जन्म होगा।

(फिर धीर-धीरे
सारे तारे टूट जायेंगे
और
एक  आखिरी चीख
एक आखिरी विनाशकारी
दृश्य पे
और फ्हिर मैं हो गया
"निष्प्राण" )

Monday 6 January 2014

राहों कि कदमें, और
कदमों कि राहें,
टिकीं हैं क्यूँ मुझी पे
हर मोड़ कि निगाहें।

ज़िन्दगी कि सांसें, और
सांसों कि जिन्दिगिया,
हर जीत में दिखती हैं
सैकड़ो कमियां।

आँसुयों कि उलझने, और
उलझनो कि नजदीकियां
नजदीकियों के काफिले,और
काफिलों में दूरियां।

बस रूख्सतो का मिलना, और
चाहतो का सिलना,
कहाँ खो गयी हैं
सारी नजदीकियां।

सम्भलने से डरना ,और
डर डर के संभलना,
उफ़ ये हैरानियाँ, और
हैरानियों कि गलियां।

कब तक सिलेगा ये
शख्स खुद के किस्सो में,
कि किस्सो कि कहानियाँ,
जुदा होती निशानियाँ

उम्मीदों का दामन, और
दामन कि बेवफाईआं,
कुछ कम भी तो नहीं हैं
इस शख्स कि खुद से
रुशवाईयां।