Saturday 18 April 2015





इस महान दौर में
जहां बोलते हैं निष्प्राण भी.
बोलती है जिव्हा
दाँतो में सिमट के
'सुन रहा  है क्या कोई'
क्या सोचती हूँ मैं कभी?
की प्राण,तेज़,विश्वास भी
खो रही है ये सखी तेरी।

बदल चुकी हूँ दौर मैं
दिए हैं युग नए कई.
नम्रता और प्रेम से
बदल चुकी हूँ मन कई।

ये कौन से युग में ले आया है
मानव तू मुझे,
जहां झूठ और दोष ही
अब शब्द हैं मेरे।

एक बार बस पलट के
इतिहास मेरा देख ले।
जो सीख दी है पहले
उस सीख को बस सीख ले।

 राम -रहीम, कृष्ण-कबीर
जैसा भी  मैंने बनाया है ,
विश्व को सारे
नतमस्तक भी कराया है।

कृष्ण-सुदामा, भक्त-भगवन
जैसा कर दे बस अपना आचरण,
विश्व करेगा जय-जयकार
आकाश बनेगा तेरा आवरण।










Sunday 22 March 2015

                                                     

                                                  जीवन यात्रा 

               



है प्राण तो साँस तो  चलती रहेगी
है साँस तो देह को रोकना नहीं।
बुद्धि अगर हो जाए भी भ्रमित कभी
कर्म दूषित होने देना नहीं।

है पंख तो आकाश मन छूता ही है
है पंख नहीं तो यात्रा कभी रोकना नहीं।
मन ही है  निराश तो कभी होगा ही
कर्म से कभी निराश होने देना नहीं।

है गुरु तो शिक्षा तो देगा ही
है ज्ञान पर तो अभिमान कभी करना नही.
है रंग अगर तो श्याम-स्वेत होंगे ही
अभिमान में ज्ञान काला करना नहीं।

जो देह को रुकने तुमने न दिया
ज्ञान काले से जो कर्म दूषित न किया
कर्म से निराश होगा न कोई
इस यात्रा का परिणाम सुखद होगा तभी।